Sunday, August 26, 2012

तमसो माँ ज्योतिर्गमय

राजस्थान और उसके रेतीले शहर विरह को इस तरह कुरेदते है की विरहन अपने अतीत के जालों से निकल ही नहीं पाती। भावनाओं का ऐसा समन्दर है ये जिंदगी की अगर कोई इसमें डूबा तो पता नहीं कहाँ जायेगा और ये जिंदगी यूँ ही ख़त्म हो जाएगी ।  आज जिंदगी जीने के एक बाक्ये ने फिर से जिंदगी जीने की राह बताई।  जयपुर आये दो महीने ही हुए थे मुझे की तभी इस गुलाबी शहर की रंगीनियो को और राजस्थान की रेत को एकतीस साल पुरानी रिकॉर्ड तोड़ बारिश ने ध्वस्त कर दिया। शहर के दुकानों और घरो में काफी पानी भर गया बर्बादी के मंजर अखबारों के पन्ने और लोगों के जेहेन में तैरने लगे ।  छुटियाँ तो कभी भी रास नहीं आई सो बैंक की दो दिन की हड़ताल नयी ही बनी मुझ बैंक बाबु को अतीत में डुबोने लगी। अक्सर तन्हाईयों में सबका छूटना याद आता था।
                                                         कसुया का ये बताना याद आता था की मेरा सबसे प्यारा दोस्त एलेन अब नहीं रहा । ऑफिसर जी की वो बेरूखी याद आती थी कि जो मेरे पास होते हुए भी वो किसी और को मैसेज कर रहा था । पापा की नाराजगी याद आती थी कि जयपुर आते वक्त ना तो उन्होने बात की और ना ही एयरपोर्ट छोड़ने आये । मुझे विदा करते वक्त माँ का वो चेहरा याद आता था जैसे उनकी आत्मा को कोई लिये जा रहा है और वो आँखों में समन्दर रोके एकटक मुझे देख रही है ।  पटना के वो गलियारे याद आते थे जहां मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और गिरिजा में इबादतें मोहब्त गुंजती थी । इन सबको सोच कर प्लेन में ली हुई वो सिसकियाँ याद आती थी, जब मैं देवी माँ की मुर्ति लिये जी भर रोये जा रही थी ओर लोग यु ही देख रहे थे, और भी बहुत कुछ............
                                                   जब ये सारी यादों नें विह्‌वल कर दिया तो अपने फ्लैट का ताला लगाया और जैसे ही बाहर निकली, मेरे मकान मालकिन ने बड़े अपनेपन से कहा ''हाय-हाय पुत्तर कित्थे  जा रही है, पुरे शहर वीच पानी भरा है, मौसम दा  मिजाज खराब है, टी.वी. ते  न्यूज़  आ रही है कि २४ घंटे दा  Alert हैगा, कही नहीं जा रही है तु, घर विच रह पकौड़े बनाऊगी तेरे पसंद के'' ।
                विधि की भी अजीब विडंबना है एक बिहारी लड़की राजस्थान में एक पंजावन के यहां रहती है। मेरी रसोई की खिड़की  से एक बंगाली पड़ोसन दिखती है और ड्राविंग रूम के झरोखे से एक आसामी महिला मुस्कुराती नजर आती है। इतनी विविधता है यहां फिर भी प्यार की भाषा तो समझ आ ही जाती है । बंगाली पड़ोसन मुझसे बांग्ला में ही बात करती है और रसोई की टिप्स दिया करती है । कदाचित उन्हें भ्रम हो गया है कि मुझे बांग्ला बोलने आता है । सच तो ये है कि बांग्ला के चार शब्द '' शौति बोलची,  होवे,  तारा तारी कुरूम, एटाई जीबोन'' पर ही तुक्का मार के जबाव दे दिया करती हूँ। मकान मालकिन को मुझे रखने के बस एक दिन में ही मालूम आ गया होगा कि मैं बिल्कुल अनाड़ी और आवारा हूँ । पहले ही दिन जाने-अनाजाने में उसकी एक किमती फूलदान मुझसे टुट गयी और उसे साफ करने गयी तो हाथों में कांच चुभ गयी। बड़े प्यार से उन्होने मेंरे  हाथों में मरहम-पट्‌टी की और तीन दिन का खाना अपने सौजन्य से खिलाया । पता नहीं क्यों उन खाने में मां की रसोई के स्वाद ढूंढा करती थी । बहुत सारे सवाल अपने आप में करने लगी थी और जबाव जिन्दगी ने ओझल कर रखे थे। बुद्ध की धरती की पली-बढ़ी मैं बुद्धु अपने सवालों के जवाब ढूंढने विरान रास्तों में अकेले ही चला जाया करती थी और थक-हार के जब वापस आती नींद सारे गम आंखों में समेट के सुला देता था।
                 छुट्‌टी बर्दास्त हो नही रही थी तो मैंने अपने रूम की लाईट ऑफ की, दरवाजा खुला ही छोड  दिया ताकि लगे की घर मे ही सो रही हूं और चुपके से दवे पाँव अपने बंजारेपन की ओर निकल पड़ी। चुलगिरी की पहाड़ियों का बहुत सुना था, सडकों पर पानी भर जाने के कारण रोड बन्द पड़े थे। तभी किसी ने स्मृतिवन की तरफ का रास्ता बता दिया। मौसम बड़ा सुहावना हो रहा था, बाकई घर में बैठे रहना बेवकुफी ही समझ रही थी।
                    स्मृति वन के पहाड़ी रास्ते शुरू हो गये थे, आस-पास दुर तक कोई और नजर नहीं आ रहा था और मैं इस खुबसुरत वादियों को निहारते हुए आगे बढ  रही थी। पहले कभी घर से बाहर जाया करती थी तो घर लौटने की जल्दी हुआ करती थी, पर घर तो कहीं दूर छुट गया जहाँ वापसी तो ईश्वर ही जाने। यादों के भँवर और खुबसुरत वादियों के जाल में खोई हुई थी कि सहसा वादियों से क्रंदन की आवाज आयी। पहले तो लगा की भ्रम है फिर आगे बढ़ी तो लगा कि आवाज और भी करीब से आ रही है। फिर याद आया कि मेरी सहेली वैशाली ने कहा था कि यहाँ भूत-प्रेत बहुत होते हैं, तभी सोंचू की सच में अगर भूत होते हैं तो वो कैसा दिखता होगा। कहीं "The Mirror Movie " वाली भूतनी दिखी तो बाप-रे हॉर्ट-अटैक आ जायेगा । बड़ी दूविधा में थी, समझ में नहीं आ रहा था कि वापस जाउँ या फिर आवाज की तरफ । फिर सोचा कि आज अगर वापस गयी तो शायद एक और सवाल होगा जिन्दगी से पूछने के लिये की आखिर वहाँ था क्या ? मन ने कहा कि यार देख तो लूं, मौत तो एक दिन आनी ही है। ध्यान लगा के आवाज सुनने की कोशिश की तो लगा की खाई में से आवाज आ रही है,और भी डर लगने लगा! बहुत हिम्मत करके मैने आवाज लगाई कोई है क्या यहां ? रोने की आवाज बंद हो गयी, मैंने दुबारा आवाज लगाई कोई है क्या यहां, कि तभी राजस्थानी में बचाने-बचाने आवाज सुनाई देने लगी पर घाटी में कोई दिख नहीं रही थी । मन ने सोचा कि बेटा आज तो भूत दर्शन कर ही लो फिर मैने जोर से आवाज लगाई ''देखिये अगर आप भूत हैं तो यह जान लीजिए कि आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि मैने देवी मां वाला कड़ा पहना हुआ है"। नीचे से आखिर आवाज आई कि ''मैं भूत कोणी अदमिन  हूं, मोरो पैर फिसलियो से खाई में अटकी पड़ी सी, मै  भूत कोणी बहन''।
                           चार दिन पहले बेलक्रो जूते खरीदे थे मैंने ! मैने जुते उतारे, पर्स और मोबाईल साईड में रख दिया, फिर लेट कर जहां से आवाज आ रही थी वहां नीचे देखने की कोशिश करने लगी कि तभी चट्‌टानों को मजबुती से पकड़े, लाह की चुडियों वाले हाथ दिखने लगे, और नीचे झांकने की कोशिश करने लगी तो मेरा एक जुता पैरों से लग के नीचे खाई मे चला गया। हाथ पैर सुन्न हो गये ये देख के कि जुता किन रास्तों से खाई में गिरा पर मन तो अपनी ही मनमानी करता है। अजीब सवाल-जबाव कर रहा था जैसे कहीं सुना था मैने कि जिसका जन्म जिस दिन होता है वो मरता उसी दिन है पर आज तो रविवार है नहीं ! इसलिए आज तो पक्का नही मरूंगी। मोबाईल देखा सोचा किसी को फोन लगाती हूं पर नेटर्वक रहे तब न !  विरानों में रस्सी भी नहीं मिलेगी कि उसे बचा पाउं। तभी दुपट्‌टे पर ध्यान आया, उस वक्त अपने भारतीय परिधान पे बड़ा गर्व आया कि क्या ड्रेस है, अपने यहां की, ''सलवार समीज के साथ दुपट्‌टा माईन्डब्लॉईंग कॉस्टूयुम है यार'' ! दुपट्‌टे को ऐंठ कर रस्सी की तरह बनाया और दोनों किनारों पर गांठ लगा दी, एक तरफ कस कर दुपट्‌टा पकड़ा  और नीचे फेकते हुए कहा ''आप ज्यादा मोटी तो नहीं हैं न ! इसे कस के पकड़  लिजिए और उपर आने की कोशिश किजिए''  दुपट्‌टे की लंबाई छोटी पड़ रही थी कि तभी चार-पांच कदम नीचे  एक बड़ी सी चट्‌टान दिखी पर जाउं कैसे ! डांस में एक पैर पे काफी चक्कर लगाये थे आज वो बैलेंस काम आ रहा था।
             उस महिला को हिम्मत दिला रही थी कि घबराओ नहीं मैं हूं न और मेरी हिम्मत की वाट लगी पड़ी थी । दुपट्‌टा कस के पकड़ने को कहा उसे कि अचानक मुझे रित्तिक रौशन की अग्नि-पथ का वो लाईन मन में अन्यास आ गया ''ये महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु श्वेत रक्त से लथपथ, अग्निपथ-अग्निपथ'' । अपने आप पे गुस्सा भी आ रहा था कि ये भी कोई टाईम है डायलॉग याद करने का कि तभी दूसरे पल इस का मतलब भी समझ में आ रहा था। मैने उसे खिंचना शुरू किया और वो भी उपर आने की जबरदस्त कोशिश करने लगी । हम दोनो एक ही कश्ती पे सवार थे फर्क सिर्फ इतना था कि मेरे एक कदम के फासले पर जिन्दगी और मौत थी, तो उसकी दो मुठियां में जो उसने  दुपट्‌टे से जकड़े थे। पुरी जिन्दगी की ताकत उसमें झोक दी मैंने और तभी अचानक  ही मेरे कुछ अच्छे पल मन में विचरने लगे ।
             ऐलेन का वही मुस्कुराता चेहरा सामने दिखा जब आखिरी बार उसने मुझसे हमेशा खुश रहने का वचन मांगा । मां के गले से लगकर रोना याद आ रहा था जब पुरे दिन मैं रूठी घर से बाहर थी और बस ये पुछने आयी थी कि मां मरने जा रही हूं, जाउं । ऑफिसरजी का गुवहाटी आना याद आ रहा था, जब वो किसी की परवाह किये बिना मेरे लिए मुझसे मिलने आया था । जिन्दगी में वेपनाह प्यार करने वाले लोग थे और मैं जिन्दा होकर भी जिन्दगी भूल चली थी ।
             हमारी कोशिश रंग लाई और हम दोनो चट्‌टान पर खड़े थे अब! खाई से उपर आने में चार-पांच कदमों का फासला था, मैंने उससे पहले उपर चढ़ने को कहा तो उसने असमर्थता जताई तो मुझे बड़ा गुस्सा आया। उसे बड़े जोर का डांटा मैंने ''खाली गिरना आता है, किसने कहा था इस बारिश में निकलने, घर में शांति से बैठा नहीं जा रहा था''। वो रो पड़ी और रोते हुए बताया कि नीचे  मालवीय नगर के घरों में वर्तन-पोछा करके बच्चों का पेट पालती है। बारिस की वजह से दो दिनों से काम पे नही जा रही थी और उसके बच्चे भूखे थे, सीधे शहर से जाने का रास्ता बंद था इसलिए पहाड़ी रास्ते से जा रही थी ।
                एक तरफ देश में करोड़ो के स्कैम करके लोग अपनी जेबें भरते हैं, और दूसरी तरफ करोड़ो जिंदगियां यू ही भूखों मरती हैं । संभलते कदमों से एक-एक कदम हाथ पकड़े उपर पगडंडियों पर आ रहे थे हम दोनों ! बरवस ही ऐलेन का कैशियो सिखाना याद आ रहा था, जब वो मेरे उंगलियों को पकड़  के कैशियो पे धुन बजाना सिखाता था । मां का साथ पुजा करवाना याद आ रहा था, जब मेरे हाथों से खाने और कपड़े बटवाया करती थी। ऑफिसरजी की याद आ गयी जब गुवहाटी की पहाडियों में छोटे झरने संभल-संभल के हाथ पकड़े उसने यु ही पार करवाया था । हम दोनो उपर आ चुके थे, उसने मेरे पैर पकड  लिए अपने घर बताने लगी की इस तरफ है । मैने पर्स में से सौ रूपये निकाल के दिये और कहा कि वारिश में इन रास्तों से मत जाना । वो मेरे घर जाने की चिन्ता करने लगी ओर जानना चाहा कि कितनी दूर है, कैसे जाउंगी मैं ! एक बड़ी अच्छी लाईन याद आ गयी ''उठे हैं जब भी हाथ में उसके सदके, मजबुर है खुदा दुआओं के सामने''।

                      मैने मुश्कुराते हुए बस इतना ही कहा कि मैं चली जाउंगी तुम ठीक से जाना । मन सोचने लगा कि बजारों का कोई घर थोड़े ही होता है, उसके तो बस लोग ही होते हैं । कुछ जो अपने लगते हैं और कुछ जो यु ही उसके नये कारवाँ  से जुड़ते रहते हैं । मंजिलें नहीं होती, सिर्फ रास्ते होते हैं और होती है कुछ मुश्कुराती खिलखिलाती यादें जो इतना साहस दे ही देती हैं कि हम कैसे भी रास्ते पार कर जाते हैं । ये बस आपके ही हाथों में होता है कि आप सहारा देने वालों में से हैं या लेने वालों में से ! मोबाईल जमीन से उठाया, तो बगल में पड़ा  एक पैर का जुता दिखा, उसे भी मैने खाई में फेंक दी ताकि घाटी वाले भूत अगर वो गिरा हुआ जुता पहने तो दूसरा मेरे पास मांगने नही चले आयें ।
                       उस दिन को और ज्यादा Adventurous बनाने का मुड नहीं था सो वापसी की । फ्‌लैट में चुपचाप अंदर गयी बिना आवाज किये, थोड़ी देर के बाद जैसे ही कमरे की लाईट जलाई तभी आंटी आ के बोली ''पुत्तर सो गयी थी, तेनु तीन वारिया आवाज लगाया सी , उपर आ जा पकौड़े खाले'' । मन ने कहा आज तो आपके पुत्तर के एक भी पुर्जे नही मिलते और पकौड़े खाने तो भूत ही आता । अब शायद एक साल की लंबी नींद से जागी थी मैं । जिन्दगी और मौत के फासलों को मिटाता वो एक कदम सिखा गया कि ''लम्हा-लम्हा ही जिन्दगी है, मौत से पहले क्यों न जी भर जी लूं''।