एक दिन की बात है, मेरे सारे दोस्तों ने फिल्म देखने की योजना बनाई I मैंने कभी कोई फिल्म हॉल में नहीं देखा था सो काफी उत्साहित थी I तय हुआ की क्लास बंक करके नहीं छुट्टी के दिन जायेंगे I मेरे पापा हजारीबाग में अपने official टूर पे गए हुए थे तो मैंने फ़ोन पर ही पूछा "पापा मुझे फिल्म देखने जाना है सारे दोस्त जा रहे है मैं भी जाना चाहती हूँ क्यूँ की मैंने कभी सिनेमाहाल नहीं देखा, please पापा"I पापा ने परमिशन दे दिया सहसा मुझे यकिन ही नहीं हो रहा था तो मैंने आश्चर्य से पूछा" सबके parents तो मना करते है आप परमिशन दे रहे हैं ??? ", इस पर पापा ने जबाब दिया की "मैंने अपना घर, घर ही रखा है पिंजरा नहीं बनाया बेटे, कौन सी फिल्म जानी है मैं भी चल सकता हूँ क्या" I खैर पापा तो नहीं गए उन्हें कभी ऑफिस से छुट्टी ही कहाँ मिलती है! १२ बजे का शो देखने के लिए ९:३० से ही सिनेमा हॉल पहुचे हमलोग, अढाई घंटा टिकेट खिड़की के आसपास खड़े होकर हम सभी के पैरों का कचड़ा हो गया था I मैं और मेरी दोस्त टिकेट खिड़की पे सबसे आगे लगे हुए थे, तीन क्लास की टिकेट थी और ये नहीं समझ आ रहा था की ये SC BC और DC क्या है? मैंने मेरी दोस्त से पूछा तो उसने बताया SC का मतलब स्पेशल क्लासi बता के और भी दुबिधा कर दी उसने तो समझ नहीं आ रहा था की इस स्पेशल क्लास का ही चार्ज इतना कम क्यूँ है I
खैर , टिकेट खिड़की पर पहुंची तो लगा जैसे गुरु जी नजर आ रहे है और रोम रोम सिहर गया I घबराहट में टिकेट बाले से टिकेट की जगह कैसेट मांगने लगी I टिकेट बाले ने अजीब से देखा और कहता है " टिकेट चाहिए या कैसेट चाहिए ", टिकेट मिला तो हम सभी गेट खुलने का इंतज़ार करने लगे I पहली बार जाना की तीन चीजों की दीवानी है ये दुनिया पहला क्रिकेट , दूसरा सिनेमा और तीसरी किताबें I
जब पहली बार कोई बात होती है या कुछ नया करते हैं तो मन में एक उमंग होती है , अन्दर से सिनेमाहाल देखा तो काफी अच्छा लगा सभी लोग अपनी निर्धारित सीट पर बैठने लगेI बिडम्बना देखिये मेरी कुर्सी ही ख़राब मिलनी थी, जब भी उठती तो बैठने बाली सीट नीचे चली जातीI यार कोई तीन घंटे एक ही जगह पर कैसे बैठ सकता है वो भी एक ही पोज़ में, मेरे से तो नहीं हो रहा था I फिल्म थोड़े से advertisement के बाद शुरु हुई I हीरो के परदे पर आते ही तालिओं और सिटिओं की बौछार शुरु हो गयी , मैंने सोंचा शायद ये परंपरा होगी और मैं भी सिटी बजाने की कोशिश करने लगी I पहली बार था न बजा ही नहीं फिर हार कर ताली बजाना ही श्रेष्ठ लगा I जैसे जैसे फिल्म आगे बढती या कोई तरीका अर्धनग्न अवस्था में कमर मटकती तो अनवरत सीटीओ की बौछार शुरु हो जाती I मन उचटने लगा एकाएक, लगा की इतने उमंग लिए मैं ये देखने आई हूँ I
बड़ा पर्दा , सभी कुछ बड़ा नजर आ रहा था जो दृश्य हम टेलीवीजन पे गौर से नहीं देखते थे और चैनल बदल देते थे वो भी बड़ी बेशर्मी से देखने पड़ रहे थे I यहाँ पे कोई फॉरवर्ड आप्शन ही नहीं था यार! हद सिरदर्दी थी 35 रुपये की मोल जो खरीदी थी मैंने! खैर जैस तैसे मेरे तीन घटे कटे, लगा जैसे जन्मों के पिंजरे से आज़ाद हुई हूँ I सिनेमाहाल से निकलते वक़्त एक ही ख्याल आया " क्या यही हमारी संस्कृति है ? मन ने जैसे कहा , बिलकुल भी नहीं , फिर लगा की globalization का दौर है बोल्ड होना जरूरी है "I
थोडा सोंचने बाली बात है क्या बोल्डनेस बिपाशा मल्लिका या ऐश्वर्या की तरह होनी चाहिए ? आज जरूरत है हमारी प्रथमिकताये बदलने का , हम इस तरह अपने कर्तब्यों से नहीं भाग सकते I
बोल्डनेस बिपाशा मल्लिका या ऐश्वर्या की तरह नहीं ," मदर टेरेशा या कल्पना चावला की तरह होनी चाहिए "I